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ये ते॒ सन्ति॑ दश॒ग्विन॑: श॒तिनो॒ ये स॑ह॒स्रिण॑: । अश्वा॑सो॒ ये ते॒ वृष॑णो रघु॒द्रुव॒स्तेभि॑र्न॒स्तूय॒मा ग॑हि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ye te santi daśagvinaḥ śatino ye sahasriṇaḥ | aśvāso ye te vṛṣaṇo raghudruvas tebhir nas tūyam ā gahi ||

पद पाठ

ये । ते॒ । सन्ति॑ । द॒श॒ऽग्विनः॑ । श॒तिनः॑ । ये । स॒ह॒स्रिणः॑ । अश्वा॑सः । ये । ते॒ । वृष॑णः । र॒घु॒ऽद्रुवः॑ । तेभिः॑ । नः॒ । तूय॑म् । आ । ग॒हि॒ ॥ ८.१.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

भगवान् के महान् ऐश्वर्य्य की स्तुति दिखलाने के हेतु यह अग्रिम आरम्भ है।

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (ते) वे तेरे अतिदूरस्थ (दशग्विनः) दशगुणित गतियों से युक्त (अश्वाः१) लोक (सन्ति) हैं (शतिनः) शतगुणित गतियों से युक्त लोक हैं (ये सहस्रिणः) जो वे सहस्रगुणित गतियों से युक्त लोक हैं (ये+ते+वृषणः) जो जलयुक्त लोक हैं और जो (रघुद्रुवः) अतिशीघ्रगामी लोक हैं (तेभिः) उन सब प्रकार के लोकों से हे इन्द्र ! तू युक्त है। अतः (नः) हम लोगों के निकट (तूयम्) शीघ्र (आगहि) रक्षा के लिये आजा ॥९॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर की विभूतियाँ सर्वदा अध्येतव्य हैं। किस आधार पर सूर्य्य स्थित है। पृथिवी का आधार क्या है। रात्रि में जो असंख्य नक्षत्र भासित होते हैं, उनकी क्या अवस्था है। इस प्रकार की ईश्वरीय वस्तु सदा जिज्ञासितव्य है और तत्त्ववित् पुरुषों के द्वारा वेदितव्य है ॥९॥
टिप्पणी: १−अश्वासः=अश्व−लोक में पशुवाचक अश्व (घोड़ा) शब्द प्रसिद्ध है, परन्तु वेदों में यह अनेकार्थ है। यहाँ पृथिव्यादि लोकवाची है। जो बहुत देशव्यापी हो, उसे अश्व कहते हैं। क्योंकि अश धातु का अर्थ व्याप्ति है, जिससे यह शब्द बना है। यहाँ वर्णन इस बात का है कि इस लोक में पृथिवी के छोटे-२ टुकड़ों के अधिकारी भी राजा महाराज कहलाते हैं और उनसे प्रीति रखनेवाले भी सुखी देख पड़ते हैं। परन्तु परमात्मा अनन्त संसारों का अधीश्वर है, अतः यदि उससे प्रीति की जाय तो सेवक सदा सुखी रहेगा। अतः कहा जाता है कि इन्द्र सर्व लोक-लोकान्तरों से युक्त है, अतः उसी से हम प्रेम करें। इसी विषय को वक्ष्यमाण पदों से दिखलाते हैं।दशग्वी−मुख्य और गौण भेद से तीन प्रकार के पृथिव्यादि लोक हैं। जैसे सूर्य्य एक मुख्य लोक है। वह अनेक उपग्रहों और ग्रहों से युक्त है। पृथिवी बृहस्पति आदि उसके अनेक उपग्रह हैं। पृथिवी का भी उपग्रह चन्द्र है और कोई अकेला ही आकाश में भ्रमण कर रहा है। इस प्रकार अनन्त-२ सृष्टियाँ हैं, जिनका वर्णन सर्वथा शब्दद्वारा असंभव है, तथापि मानवजाति के ज्ञानविवृद्ध्यर्थ संक्षेप से वर्णन करते हैं। दशग्वी=कोई भुवन दशग्रहों उपग्रहों से युक्त है, उसे दशग्वी कहते हैं। किन्हीं में दशगुणित अधिक गति है। कोई दशगुण कार्य कर रहे हैं, वे दशग्वी। इसी प्रकार शतिनः=शतग्रह उपग्रह से युक्त। शतगुणित कार्य्य करनेवाले। सहस्रिणः=सहस्रगुण कार्य करनेवाले, यथा सहस्रों ग्रहों से युक्त। वृषणः=वर्षा करनेवाले। अथवा वर्षायुक्त लोक। बहुत से लोक ऐसे हैं, जिन में कभी वर्षा नहीं होती। वहाँ जीव भी प्रायः नहीं हैं और बहुत से पृथिवी आदि लोक जलयुक्त हैं। रघुद्रुवः=शीघ्रगामी। बहुत से लोक मन्दगामी और स्थिर प्रतीत होते हैं ॥९॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा को अनन्तशक्तिशाली कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (ये, ते) जो आपकी (दशग्विनः) दशों दिशाओं में व्यापक (शतिनः) सैकड़ों (सहस्रिणः) सहस्रों (ते) आपकी (ये) जो (वृषणः) सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली (रघुद्रुवः) क्षिप्रगतिवाली (अश्वासः) व्यापकशक्तियें (सन्ति) हैं (तेभिः) उन शक्तियों द्वारा (तूयं) शीघ्र (नः) हमको (आगहि) प्राप्त हों ॥९॥
भावार्थभाषाः - उस सर्वव्यापक परमात्मा की इतनी विस्तृत शक्तियाँ हैं कि उनको पूर्णतया जानना मनुष्यशक्ति से सर्वथा बाहर है, इसी अभिप्राय से मन्त्र में “सहस्रिणः” पद से उनको अनन्त कथन किया है, क्योंकि “सहस्र” शब्द यहाँ असंख्यात के अर्थ में है, इसी प्रकार अन्यत्र पुरुषसूक्त में भी “सहस्रशीर्षा पुरुषः” इत्यादि मन्त्रों में उसका महत्त्व वर्णन किया गया है, वह महत्त्वशाली परमात्मा अपनी कृपा से हमारे समीपस्थ हों, ताकि हम उनके गुणगान करते हुए पूर्ण श्रद्धावाले हों ॥९॥
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शिव शंकर शर्मा

भगवतो महदैश्वर्य्यमुपस्तोतुमुपक्रमते।

पदार्थान्वयभाषाः - अश्न्वते=बहुदेशं व्याप्नुवन्ति ये ते अश्वाः पृथिव्यादिलोकाः। यः कश्चिल्लोको दशगुणिताभिर्गतिभिर्युक्त्तोऽस्ति स दशग्वी=दशभिर्लोकैः सह गच्छतीति दशग्वी। यः शतगुणितगतिभिर्युक्त्तः स शती। यः सहस्रगतिभिर्युक्तः स सहस्री=यं पारतो लघीयांसो विविधा उपग्रहा घूर्णन्ति। यो वर्षति सिञ्चति स वृषा लोकः। यो रघुद्रूः=लघु शीघ्रं द्रवति गच्छति स रघुद्रूः। अथ ऋगर्थः−हे इन्द्राभिधेय परमात्मन् ! ये ते=तव। अश्वाः=व्यापनशीला लोका दृशग्विनः सन्ति। ये शतिनः सन्ति। ये सहस्रिणः सन्ति। ये वृषणः=सेचनसमर्था लोकाः सन्ति। ये रघुद्रुवः=शीघ्रगामिनश्च सन्ति। तेभिः=तैर्महद्भिरैश्वर्य्योपेतैर्लोकैर्युक्तस्त्वं वर्तसे। ईदृशस्त्वम्। अतः नोऽस्मान्। तूयं=शीघ्रम्। आगहि=आगच्छ रक्षार्थम् ॥९॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मनोऽनन्तशक्तिमत्वं कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (ये, ते) ये तव (दशग्विनः) दशसु दिशासु गन्तुं शक्ताः (शतिनः) शतसंख्याकाः अथ च (सहस्रिणः) सहस्रसंख्याकाः (ये, ते) ये च तव (वृषणः) कामानां वर्षयितारः (रघुद्रुवः) क्षिप्रगतयः (अश्वासः) व्यापकशक्तयः (सन्ति) विद्यन्ते (तेभिः) ताभिः (नः) अस्मानभि (तूयं) तूर्यं (आगहि) आगच्छ ॥९॥